नैनीताल जिले के तराई भाबर में बसा काठगोदाम कोई आम जगह नहीं है। यहाँ के लोग और घनघर बियाबान जंगलों में रहने वाले जानवरों को शायद ही अंदाज़ा था कि पिछले कुछ सालों से जंगल में हो रही खटर-पटर का नतीजा क्या होने वाला है। फिर वो दिन आया – 24 अप्रैल 1844, जब भाबर के जंगलों से गुज़रता एक बड़ा सा लोहे का डब्बा, जो आग उगलता था, चौहान पाटा पहुँचा। आज इसकी कहानी सुनाने जा रहा हूँ, तैयार हो जाओ!

पहली ट्रेन का वो मंज़र
उस दिन चौहान पाटा में बना नया-नवेला रेलवे स्टेशन भीड़ से ठसाठस था। आगे की कतारों में गोरे अंग्रेज थे, और पीछे गरीब भारतीयों का हुजूम। सब सुबह से जमा थे उस लोहे के विकराल डब्बे को देखने के लिए। भाई, जब वो चलता हुआ डब्बा आया, तो लोग डर गए और भागने लगे। इस तरह 24 अप्रैल 1844 को काठगोदाम में पहली ट्रेन लखनऊ से आई। भारतीय रेलवे के पूर्वोत्तर मंडल का ये आखिरी रेलवे स्टेशन वजूद में आया। 1843 में भारतीय रेल शुरू हुई थी, और 1844 तक यहाँ तक पहुँच गई।
लकड़ी से बना काठगोदाम
ये स्टेशन अंग्रेजों ने माल गाड़ियाँ चलाने के लिए बनाया था। उस वक्त पूरे देश में माल ढुलाई के लिए रेलवे ट्रैक बिछाए जा रहे थे। ट्रैक की पटरियों में पहले लकड़ी के स्लीपर लगते थे, जिनकी जगह अब कंक्रीट के स्लीपर ने ले ली है। पहाड़ से लकड़ियाँ काटकर उन्हें नदियों में बहाकर मैदानी इलाकों तक पहुँचाया जाता था। यहाँ से रेल में लादकर देश के हर कोने में भेजा जाता था। चौहान पाटा का रेलवे स्टेशन इसी लकड़ियों को ढोने के लिए बना था।
पिथौरागढ़ के दान सिंह मालदार, जिन्हें टिंबर किंग कहा जाता था, उस दौर के सबसे बड़े लकड़ी व्यापारी थे। उन्होंने चौहान पाटा में अपने लकड़ी के गोदाम बनाए। गौला नदी के ज़रिए पहाड़ से लकड़ियाँ बहाकर यहाँ लाते और गोदामों में रखते थे। इस तरह इस जगह का नाम पड़ा – काठगोदाम।
छोटा सा गाँव से बड़ा स्टेशन
1901 तक नैनीताल के इस हिस्से में गौला नदी के तट पर बसे चौहान पाटा गाँव की आबादी महज़ 300 थी। शुरू में यहाँ से सिर्फ माल गाड़ियाँ चलती थीं। बाद में सवारी गाड़ियाँ भी शुरू हुईं। सवारियों की खासी तादाद को देखते हुए इसे धीरे-धीरे देश के कई प्रमुख शहरों से जोड़ा गया। उस वक्त यहाँ छोटी रेल लाइन यानी मीटर गेज थी। फिर 4 मई 1994 को बड़ी रेल लाइन यानी ब्रॉड गेज पर ट्रेनें चलने लगीं। कोयले के इंजन से भाप के इंजन तक का सफर भी यहीं पूरा हुआ।
सामरिक महत्व की वो कहानी
अगर लगता है कि काठगोदाम सिर्फ रेलवे स्टेशन की वजह से मशहूर है, तो भाई, गलत सोच रहे हो। ये मामूली सी दिखने वाली जगह राजतंत्र के जमाने में सामरिक महत्व रखती थी। गुलाब घाटी में तीखे पहाड़ों से घिरी शंकरी घाटी पर बाहरी आक्रांताओं और लुटेरों को रोकने का काम यहीं से होता था। 1743-44 में राजा कल्याण चंद के शासन में रोहेल के एक बड़े हमले को सेनापति शिवदत्त जोशी ने यहाँ करारी शिकस्त दी। रोहेल की हिम्मत टूट गई, और फिर कभी कुमाऊँ का रुख करने की हिम्मत नहीं पड़ी। उस वक्त इसे बाला खेड़ी या बाला खोड़ी कहते थे। रेलवे स्टेशन बनने के बाद ये व्यापारिक महत्व की जगह भी बन गई।
आज का काठगोदाम
आज काठगोदाम कुमाऊँ को रेल मार्ग से देश से जोड़ता है। हल्द्वानी नगरपालिका का हिस्सा होने के बावजूद इसका अपना वजूद है। गौला नदी और पुष्प भद्रा नदी का संगम यहीं पास है। यहाँ गौला नदी में बना बैराज लोकल लोगों और सैलानियों के लिए पर्यटन स्थल है। कुमाऊँ मंडल विकास निगम का यात्री निवास भी यहीं है।
यहाँ शीतला माता मंदिर और काली माता का सिद्धपीठ काली चौड़ भी है। हल्द्वानी के नामचीन कॉन्वेंट स्कूल भी पास में शुरू हुए थे। हाल के सालों में आयकर कार्यालय, राज्यकर कार्यालय, सर्किट हाउस, और एनएचपीसी का गेस्ट हाउस बनने से ये सरकारी महकमों का केंद्र भी बन गया है। सीआरपीएफ का केंद्र भी यहीं है।
काठगोदाम का मज़ा
भाई, पिछले साल यहाँ रुकने का मौका मिला। गौला नदी के किनारे चाय पीते हुए जो मज़ा आया, वो आज भी याद है। वो पुराना स्टेशन देखकर लगा कि लकड़ियों की ढुलाई से लेकर सामरिक महत्व तक, और अब परिवहन और प्रशासकीय केंद्र बनने तक – काठगोदाम की कहानी गज़ब की है।
कैसे जाओगे?
नैनीताल से 35 किलोमीटर दूर है। रेल मार्ग से सीधे काठगोदाम पहुँचो, या हल्द्वानी से टैक्सी ले लो। रास्ते में तीखे पहाड़ों का नज़ारा मुफ्त में मिलेगा।
काठगोदाम का इतिहास सामरिक, वाणिज्यिक, और परिवहन से लेकर प्रशासकीय महत्व तक का है। ये छोटी सी जगह हर दौर में अपनी पहचान बनाती रही है। कभी गए हो यहाँ? कमेंट में बताओ, और हाँ, MyDevbhoomi.in पर ऐसी ही कहानियाँ पढ़ते रहो।